जमी़ल अहमद मिलनसार, बेंगलुरु
सहायक महासचिव, ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल कर्नाटक
तो लीजिए, बिहार में चुनावी तमाशे का बिगुल बज चुका है। हमारे मुख्य चुनाव आयुक्त महोदय, उनकी कड़क कॉलर और दबंग अंदाज की तो बात ही निराली है—दिल्ली में एक भव्य सभागार सजाकर तिथियों की घोषणा कर दी। दृश्य कुछ यूँ था: चमकते कैमरे, हर बात पर सिर हिलाते पत्रकार, और एक ऐसा अधिकारी जो सत्ता के नशे में चूर होकर देश को चुनावी कार्यक्रम का उपहार देता प्रतीत हो रहा था।
मुख्य मुद्दे—अर्थात् बिहार चुनाव की तिथियों—पर आने से पहले उन्होंने SIR नामक किसी विषय पर लंबी, बेजान और धुंधली-सी व्याख्यान शैली में बात की। मुझे तनिक भी अंदाज़ा नहीं कि इसका अर्थ क्या था, और मैं शर्त लगा सकता हूँ कि बिहार के लाखों नागरिकों को भी इसका पता नहीं होगा, जिनके भाग्य को इससे जुड़ा बताया गया। निस्संदेह यह प्रशासनिक तामझाम की घिसी-पिटी, घुमावदार भाषा का एक उत्कृष्ट नमूना था, जिसे सुनकर किसी को भी नींद आ जाए। सम्भव है कि वे स्वयं अपनी इस प्रदर्शनपरक ‘मशीनरी’ पर प्रसन्न हुए हों।
मगर वास्तविक रस तो तब आया जब एक ‘जिद्दी’ किस्म के पत्रकार ने सीधा प्रश्न कर दिया—“जनाब, घुसपैठियों का क्या हुआ?” यह सवाल मानो सरकारी वक्तव्यों के शांत जलाशय में पत्थर की तरह गिरा। आखिरकार, यह भव्य और महँगा SIR तो इसी उद्देश्य से किया गया था कि उन्हें बाहर निकाला जाए। और अचानक, भाषण की गंगा जैसे थम गई। चुनाव आयुक्त महोदय इस प्रश्न से ऐसे बचने लगे, जैसे कोई अनुभवी राजनीतिज्ञ उधार मांगने वाले से बचता हो। कहा जा रहा है कि यही नाटक पटना में भी दोहराया गया।
तब मन में यह प्रश्न उठता है कि इतने बड़े ऑडिट का क्या लाभ, यदि उसके परिणाम सार्वजनिक ही न किए जाएँ? यह वैसा ही है, जैसे कोई चिकित्सक महँगा ऑपरेशन कर दे और बाद में परेशान परिजनों को यह बताने से इनकार कर दे कि रोगी जीवित है या निधन हो गया। यह प्रथम श्रेणी का उपहास और जनबुद्धि का अपमान है।
और बेचारा बिहारी मतदाता? वह तो अगले बाढ़, खराब फसल, अथवा इस चिंता से कहीं अधिक स्वाभाविक रूप से चिंतित है कि उसके बेटे को सूरत या मुंबई में काम मिलेगा या नहीं, या गाँव के विद्यालय में कभी कोई योग्य शिक्षक आएगा भी या नहीं। किंतु दिल्ली और पटना के वातानुकूलित दफ्तरों में बैठे लोग चाहते हैं कि वह ‘घुसपैठियों’ की चिंता करे। देखिए, राजनीति में एक ‘शत्रु’ सदैव काम आता है—यह जनता का ध्यान उसके खाली पेट और खाली जेब से भटकाए रखता है। मतदाता को केवल मतदान की तारीख थमा दी जाती है; उसे मतदान का पात्र तो माना जाता है, परंतु एक सीधा प्रश्न पूछकर उसका सीधा उत्तर प्राप्त करने का पात्र नहीं।
पूरा घटनाक्रम हमारी राजनीति में समाए उस विशेष प्रकार के पाखंड की गंध देता है, जो इसकी नस-नस में प्रवाहित है। चुनाव आएंगे और चले जाएंगे। लोग या तो जाति-धर्म की पुरानी निष्ठाओं के नाम पर, अथवा प्याज और तेल की कीमतों के आधार पर वोट देंगे। एक सरकार बनेगी, नए मंत्री शपथ लेंगे, और हार-फूल का लेन-देन होगा। और ‘घुसपैठियों’ वाला वह मूल प्रश्न—जिसके नाम पर यह पूरा नाटक रचा गया—नारेबाज़ी और उससे भी ताज़े झूठों के ढेर तले आसानी से दफ़न हो जाएगा।
तो चलिए, तमाशा शुरू हुआ। मैं इसे अपनी आरामकुर्सी पर बैठकर, सुबह का अख़बार पढ़ते हुए देखूँगा और इस भव्य नाट्य को निरखता रहूँगा। भाषण ऊर्जामय होंगे, वादे विराट होंगे, और परिणाम मानसून की वर्षा के समान पहले से तय होंगे। यदि कुछ सच में बदलेगा, तो केवल पोस्टरों पर छपे चेहरे—जबकि जनता के प्रश्न धूल खाते रह जाएँगे। सबके लिए कटु शुभेच्छाओं सहित।